एक बात रह रह कर मन में उठ रहा है ..पिछले चंद रोज से ...इंसान कितनी तरह के होते है ??? कोई शांत होता है तो कोई तूफानी ..कोई अपनी बात किसी भी तरह मनवाने की जिद वाला होता है तो कोई बिना कहे ही कुछ बुरा नहीं मानता जब अपनी जिद पूरी ना हो .....मा को ऐसे बच्चे की शायद ज्यादा फ़िक्र होती है जो कुछ मांगते नहीं हो ...पर कभी कभी ऐसे लोग को जिसे अंग्रेजी में टेकन फॉर ग्रांटेड कहते वैसे ही लिया जाता है ...शायद लोग उन्हें बुध्धू समजते है ...इसे कोई अक्कल ही नहीं हो वैसे ही ....पर क्या उन लोग का दिल नहीं होता होगा ये समझने की दुनिया के पास फुर्सत कहाँ ???कितना मन मारके जीते होंगे वे लोग ...कितनी ख़ुशी का बलिदान देना पड़ता होगा ...ये कोई नहीं सोचता ...हमेशा ये सोचते है की इसे बुरा नहीं लगेगा ....
दुनिया बहुत वास्तविक हो चुकी है ...यहाँ संवेदना की कोई कीमत नहीं ...पर एक सच्चाई ये भी है की जब हम किसी का हक़ उससे छीन लेते है तब आत्मा तो जरूर रोती है ..और ये बात आपकी नींद भी छीन लेती है ...रात के कोने में अकेले सोते हुए हमें दिन में किये हर गलत काम याद आते है ,बस दुनिया के सामने कुबूल करने की हिम्मत हम कभी नहीं कर पाते ...और जो अपनी इच्छा को किसी की ख़ुशी पर बली देने की हिम्मत करता हो वो चैन की सांस जरूर लेता है ........
क्या हम किसी की ख़ुशी के लिए ये कर पाएंगे ????
दिल की सफ़र
Friday 20 August 2010
Tuesday 2 February 2010
महंगा बचपन, महंगी पाठशाला और महंगा खाना पसंद है अभी का ............सुरेन्द्र
दिमाग पर थोड़ा जोर डालिए और याद करिए अपना बचपन। खपरैल वाले सरकारी स्कूल का वह नजारा, जहां बोरे पर बैठकर मास्टर जी की क्लास चलती थी। जैसे-तैसे हाफ पैंट व शर्ट पहनकर, किताबों से भरे झोले को कंधे पर लटकाते और चल पड़ते थे स्कूल। मास्टर जी का स्कूल, जहां सब कुछ एक परिवार की तरह चलता था। नई फसल कटी, तो घर-घर से झोला पहुंचता था मास्टर साहब के लिए। मास्टर साहब भी तो अपने ही थे न, शाम को स्कूल से लौटते वक्त गांव में घूम-घूमकर सबका हालचाल ले लिया करते थे। पर, वक्त कभी नहीं रुकता, हमेशा चलता रहता है। समय बदला और पढ़ाई की तस्वीर भी बदल गई। अब बोरे पर बैठकर पढ़ना युगों की बात हो गई। पहले बिना पैसे के भी मास्टर साहब पढ़ाया करते थे, पर अब स्कूल 'देखने' के भी पैसे लगते हैं। सवाल अलग दिखने का है अब, जब जमाना इतना हाइटेक हो गया, तो लोग हर रूप में खुद को दूसरे से अच्छा साबित करना चाहते हैं। महंगी गाड़ियों की बात हो या आलीशान बंगले की, हर किसी की ख्वाहिश रहती है कि उसका सोसायटी में एक अलग स्थान हो। तभी तो, हाल के कुछ वर्षो में बच्चे को बोर्डिग स्कूल में दाखिला दिलवाने का ट्रेंड-सा चल पड़ा है। एक तो बच्चा हाइटेक युग में जीने वाला बन सके, उसमें प्रॉब्लेम को फेस करने की ताकत हो और दूसरा आस-पड़ोस के लोग देखकर जले। देश के लगभग सभी बड़े शहरों के लोग भी बोर्डिग स्कूल की ओर तेजी से झुक रहे हैं। कहें तो अब लोगों का माइंड सेट चेंज हो रहा है। आता है सेल्फ कांफिडेंस ........
बोर्डिग स्कूल में स्टूडेंट्स काफी संख्या में एक साथ रहते हैं। इससे उनमें स्टडी और कांपटीशन की भावना आती है। वे एक-दूजे के बीच अनुशासन में रहना भी सीखते हैं।हॉस्टल में रहने से स्टूडेंट्स में हर चीज सेल्फ करने की आदत लगती है। कहें तो उनमें सेल्फ कांफिडेंस डेवलप होता है, जो कि घर पर रहने से नहीं हो सकता है।
बोर्डिग स्कूल में स्टूडेंट्स काफी संख्या में एक साथ रहते हैं। इससे उनमें स्टडी और कांपटीशन की भावना आती है। वे एक-दूजे के बीच अनुशासन में रहना भी सीखते हैं।हॉस्टल में रहने से स्टूडेंट्स में हर चीज सेल्फ करने की आदत लगती है। कहें तो उनमें सेल्फ कांफिडेंस डेवलप होता है, जो कि घर पर रहने से नहीं हो सकता है।
Sunday 31 January 2010
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